
मिट्टी खोदते बाज़ुओं को, खरपतवार से जूझते हाथों को, क्यों लगते थे सब दिन समान
न सावन की फुहार, न भादों का ख़ुमार, सिर्फ जेठ की आग, इसलिए थे सब दिन समान
ग़ुलामी की बेड़ियाँ महफ़ूज़ थीं छुआ छूत की तंग गलियों में,जाति में बंटे अंधे मोहल्लों में
आम्बेडकर ने आँखें खोली थी इस दलदल में, सत्याग्रह की रोशनी भी दूर न पहुँच पाई पुराने अंधेरों में
न सड़क, न गाँव, न मंदिर, न कुआँ, न स्कूल, कुछ न था यहाँ अपना
इतना बड़ा देश, इतनी छोटी सोच, बिन बराबरी के आज़ादी थी महज़ इक सपना
कैसा राम राज्य जब आधी प्रजा अधिकारों से थी वंचित, जैसे हार कर बदहवास हो आधा आसमान
कहां से बना था ये समाज, बिन शिक्षा, बिन विज्ञान, जैसे झुक कर शर्मसार हो आधा इंसान
आम्बेडकर ने आज़ादी के सागर को रोशन किया संविधान के
उजालों से
अधिकारों का सूरज उगा करोड़ों के लिए पहली बार, ढहती छत्तों के कगारों से
आज जो सस्ते में लेते हैं दूसरों के अधिकारों को, वो ज़र ज़र करते हैं आज़ादी के ताने बानों को
वो जानते नही चमन बदल जाते हैं खारों में, वो देखते नहीं इस शहर के बढ़ते वीरानों को
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