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दिल्ली के अंधेरे उजाले

rakesh.bisariarakesh.bisaria May 5, 2023
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प्रस्तावना


दिल्ली की सुबह होती हैतो करोड़ों श्वासों के फूल खिलते हैं

दिल्ली की साँझ होती हैतो करोड़ों उम्मीदों के दीप जलते हैं


दिन में यहाँ  चमक है अशोक कीरात को लरज है थोड़े से पीपलों की

मिट्टी में महक है कीकरों कीऔर कसक है थोड़े से गुलमोहरों की


ये सराय है दूर से आए राहगीरों कीचाहें उनकी नीयत कैसी हो

सावन यहाँ घिरता है सब के लिएचाहें उनकी सीरत कैसी हो


यहाँ बिहार सेउत्तर प्रदेश सेबंगाल से थके हुए हौसले पहुँचते हैं

कश्मीर सेम्यान्मार सेअफ़ग़ानिस्तान से, अपनों के सताये साये भी भटकते हैं


आसमाँ ने यहाँ देखा है नफ़रत का जुनून बार बारजमुना की प्रेम रज भी हुई है शर्मसार

विभाजन के वो धुंधले दिन और शाम थे जैसे जंगल के सन्नाटेजहां इंसा का हुआ था शिकार


बिरला भवन की सुबह ओढ़े थी ओस की चादरउन मोतियों को लगा अभी बाकी है रात

आसमाँ देखता रहाऔर बिखर गई पोरबन्दर की रोशनी की सौगात


लोगों ने कुछ तो सोचा होगाअमन की फिज़ाओं ने दिल्ली को अपना लिया 

आज़ाद थे दिल और नई आँखों ने दिल्ली को अपने  दिलों  में बसा लिया


कुतुब मीनार ने जैसे आसमाँ को नज़दीक खींच लियातुग़लक़ाबाद ने खंडरों को ज़ुबान दे दी

यूसुफ़ सराये ने दिल्ली की सीमा तय कर दीजमुना के धारों ने  तसव्वुर को उड़ान दे दी


अभी भी हैं खैबर पास के ढाबेअभी भी हैं आर्ट्स फ़ैकल्टी के नज़ारे

लेकिन अब हैं तेरा मेरा करने वालेअब हैं सिर्फ अपना आशियाँ बनाने वाले

               *****


इमरजेंसी 1975


दोपहर के पत्ते सिर झुकाए थे किसी रहमदिल झोंके के इंतजार में

उस दिन सूरज चमकता रहा और शहर गिरते गए अन्धकार में

अखबारों की सुर्खियां बिन बिजली के काग़ज़ पर अधूरी रह गईं

सुबह बदहवाससंसद बेकारसच की हर सांस सहमी रह गई

 

हम किताबों में रोशनी तलाशते रहेऔर दोपहर हम पर हंसती रही

हम सही मौके ढूंढते रहेऔर ज़ंजीरे हमारे दिमाग को जकड़तीं गईं

ट्रेन सही समय पर चलने लगीतो लोग उसे इंक़लाब मानने लगे

दिल्ली में गरीब बस्तियाँ टूटने लगीतो लोग उसे पुनर्वास जानने लगे

 

उस दोपहर जेपी ने इक डरा हुआइक हारा हुआलोगों का समुंदर देखा

आसमान से टूट कर बिखरी शाखेंढहती इमारतों के मलबे का बवंडर देखा

हर जंग से जो भागते हैं ज़िन्दा रहने के लिएऐसे भगोड़ो का मंदर देखा

जो अपना गाँव लुटेरों को सौंप देऐसे पंचों के प्रपंच का पुराना खंडहर देखा

 

इस दौर का ज़िक्र जब जब हुआसफेद खादी में लिपटे जुआरी याद आते रहे

जीतने की चाह में सावन को दांव पर लगाते गएआसमां से नज़रें चुराते रहे

उनके कारनामों को भूल पाना मुश्किललेकिन उनके चेहरे धूल में मिटते गए

समुंदर को वो कैद  कर पाएहालांकि अंधेरे में कप्तान कश्तियां डुबोते गए

         ******


आसमाँ से गिरता जहाज़


दिल्ली को जो जानते हैं वो दिल्ली के उतार चढ़ाव को पहचानते हैं

सत्ता के गलियारों में सत्ता कैसे ज़ंजीरों से बांधी जाती हैवो जानते हैं


लेकिन आहट भी नही होती और मंजर बदल जाते हैंसुबह के सूरज शाम ढल  जाते हैं

हवा में उड़ते ख़्वाब खाक में मिल जाते हैंयहाँ तक कि आसमाँ भी दहल जाते हैं


वो ट्रेनर प्लेन उड़ाते थेराजघाट और शांतिवन के चमकते धारों से फासले बनाए रखते थे

शहर का नक़्शा कैसे बदला जाएइन ख़यालों में सोते जागते उलझे रहते थे


उन्हें मालूम न था, तुर्कमान गेट का इलाक़ा जहां पुराने ख्वाब नए दिलों में बस रहे थे

जहां मकानों की छत्तें ढह रहीं थीजहां ग़ालिब के कदम धूल में मिट रहे थे


फिर उन गलियों में बुल्डोज़र चलने लगे, धूप में पुराने मलबे अपनी नीवों से बिछुड़ने लगे

मालूम नहीं क्या हुआ उन सायों का, कुछ जहंगीरपुरी के जंगलों में बसने लगे


सुबह की कलियाँ अभी कुम्हलाई नहीं थीकनेर के फूल अभी दहक रहे थे

सुबह की फ़िज़ा अभी ठहरी हुई थीआसमाँ से इक राख गिरी और कश्ती के रूख बदल गए थे


लेकिन धतूरे के बीज़ फैल चुके थे विषैली भूमि पर आने वाली फसलों के लिए

युवा ब्रिगेड ने सिखा दिए थे धरती जलाने के तौर तरीके आने वाले मौसमों को


जब 

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