प्रस्तावना
दिल्ली की सुबह होती है, तो करोड़ों श्वासों के फूल खिलते हैं
दिल्ली की साँझ होती है, तो करोड़ों उम्मीदों के दीप जलते हैं
दिन में यहाँ चमक है अशोक की, रात को लरज है थोड़े से पीपलों की
मिट्टी में महक है कीकरों की, और कसक है थोड़े से गुलमोहरों की
ये सराय है दूर से आए राहगीरों की, चाहें उनकी नीयत कैसी हो
सावन यहाँ घिरता है सब के लिए, चाहें उनकी सीरत कैसी हो
यहाँ बिहार से, उत्तर प्रदेश से, बंगाल से थके हुए हौसले पहुँचते हैं
कश्मीर से, म्यान्मार से, अफ़ग़ानिस्तान से, अपनों के सताये साये भी भटकते हैं
आसमाँ ने यहाँ देखा है नफ़रत का जुनून बार बार, जमुना की प्रेम रज भी हुई है शर्मसार
विभाजन के वो धुंधले दिन और शाम थे जैसे जंगल के सन्नाटे, जहां इंसा का हुआ था शिकार
बिरला भवन की सुबह ओढ़े थी ओस की चादर, उन मोतियों को लगा अभी बाकी है रात
आसमाँ देखता रहा, और बिखर गई पोरबन्दर की रोशनी की सौगात
लोगों ने कुछ तो सोचा होगा, अमन की फिज़ाओं ने दिल्ली को अपना लिया
आज़ाद थे दिल और नई आँखों ने दिल्ली को अपने दिलों में बसा लिया
कुतुब मीनार ने जैसे आसमाँ को नज़दीक खींच लिया, तुग़लक़ाबाद ने खंडरों को ज़ुबान दे दी
यूसुफ़ सराये ने दिल्ली की सीमा तय कर दी, जमुना के धारों ने तसव्वुर को उड़ान दे दी
अभी भी हैं खैबर पास के ढाबे, अभी भी हैं आर्ट्स फ़ैकल्टी के नज़ारे
लेकिन अब हैं तेरा मेरा करने वाले, अब हैं सिर्फ अपना आशियाँ बनाने वाले
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इमरजेंसी 1975
दोपहर के पत्ते सिर झुकाए थे किसी रहमदिल झोंके के इंतजार में
उस दिन सूरज चमकता रहा और शहर गिरते गए अन्धकार में
अखबारों की सुर्खियां बिन बिजली के काग़ज़ पर अधूरी रह गईं
सुबह बदहवास, संसद बेकार, सच की हर सांस सहमी रह गई
हम किताबों में रोशनी तलाशते रहे, और दोपहर हम पर हंसती रही
हम सही मौके ढूंढते रहे, और ज़ंजीरे हमारे दिमाग को जकड़तीं गईं
ट्रेन सही समय पर चलने लगी, तो लोग उसे इंक़लाब मानने लगे
दिल्ली में गरीब बस्तियाँ टूटने लगी, तो लोग उसे पुनर्वास जानने लगे
उस दोपहर जेपी ने इक डरा हुआ, इक हारा हुआ, लोगों का समुंदर देखा
आसमान से टूट कर बिखरी शाखें, ढहती इमारतों के मलबे का बवंडर देखा
हर जंग से जो भागते हैं ज़िन्दा रहने के लिए, ऐसे भगोड़ो का मंदर देखा
जो अपना गाँव लुटेरों को सौंप दे, ऐसे पंचों के प्रपंच का पुराना खंडहर देखा
इस दौर का ज़िक्र जब जब हुआ, सफेद खादी में लिपटे जुआरी याद आते रहे
जीतने की चाह में सावन को दांव पर लगाते गए, आसमां से नज़रें चुराते रहे
उनके कारनामों को भूल पाना मुश्किल, लेकिन उनके चेहरे धूल में मिटते गए
समुंदर को वो कैद न कर पाए, हालांकि अंधेरे में कप्तान कश्तियां डुबोते गए
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आसमाँ से गिरता जहाज़
दिल्ली को जो जानते हैं वो दिल्ली के उतार चढ़ाव को पहचानते हैं
सत्ता के गलियारों में सत्ता कैसे ज़ंजीरों से बांधी जाती है, वो जानते हैं
लेकिन आहट भी नही होती और मंजर बदल जाते हैं, सुबह के सूरज शाम ढल जाते हैं
हवा में उड़ते ख़्वाब खाक में मिल जाते हैं, यहाँ तक कि आसमाँ भी दहल जाते हैं
वो ट्रेनर प्लेन उड़ाते थे, राजघाट और शांतिवन के चमकते धारों से फासले बनाए रखते थे
शहर का नक़्शा कैसे बदला जाए, इन ख़यालों में सोते जागते उलझे रहते थे
उन्हें मालूम न था, तुर्कमान गेट का इलाक़ा जहां पुराने ख्वाब नए दिलों में बस रहे थे
जहां मकानों की छत्तें ढह रहीं थी, जहां ग़ालिब के कदम धूल में मिट रहे थे
फिर उन गलियों में बुल्डोज़र चलने लगे, धूप में पुराने मलबे अपनी नीवों से बिछुड़ने लगे
मालूम नहीं क्या हुआ उन सायों का, कुछ जहंगीरपुरी के जंगलों में बसने लगे
सुबह की कलियाँ अभी कुम्हलाई नहीं थी, कनेर के फूल अभी दहक रहे थे
सुबह की फ़िज़ा अभी ठहरी हुई थी, आसमाँ से इक राख गिरी और कश्ती के रूख बदल गए थे
लेकिन धतूरे के बीज़ फैल चुके थे विषैली भूमि पर आने वाली फसलों के लिए
युवा ब्रिगेड ने सिखा दिए थे धरती जलाने के तौर तरीके आने वाले मौसमों को
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