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भिन्न भिन्न जगहों पर भिन्न भिन्न मर्यादा सखी,
कभी चौखट की ओट,कभी साथ निभाने बाहर भी,
मर्जी इसमें अपनी कहाँ, मज़बूरी है रिवाजों की,
साँस चलती अपनी जिसमें, इजाज़त मगर गैरों की,
चलने फिरने उठने बैठने हंसने बोलने सब पर तो रोक है,
पति है परमेश्वर पर दासी रही नारी सदा, ऐसा ये लोक है,
क़दम दर क़दम दहलीज पर रेखा सिर्फ़ हमारे लिए ही रचे,
पुरूष प्रधान समाज में उनकी मनमानी से जीवन चले,
बंद कमरे में चीखें मर्दानगी का रौब दिखाता है,
बाहर यही अबला की आवाज़ सुन गुर्राता है,
ऐसी है ये सीमा रेखा, ऐसी ये रस्म रिवाज की ज़ंजीरें,
मौत को जीकर मिलती है हमें मर्यादा की लकीरें।
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