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हर वक़्त एक सा कब रहता है यहाँ

साथ भी टूट जाती है आँधियों के दरमियाँ

टकराती है जो आपस में अहम की परतें

कहाँ खिल पाती है कोई गुल फिर वहाँ


झुकाने को बहुत कोशिश की आसमान को

तेरे शफ़क़त में इतनी बंदगी थी कहाँ 

आईने में अभी भी कुछ साफ नही दिखता

पलको की नजाकत भी अब बोझिल थी यहाँ


बहुत सोचता रहा वो लगाने को तोहमत 

गिरेबान के दाग कुछ और करते थे बयान

गिरा दिया उसने हर हद को फिर यहॉं पर

चेहरे पर दिखते थे अब हर झूठ के निशान 

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