Share0 Bookmarks 31239 Reads0 Likes
हर वक़्त एक सा कब रहता है यहाँ
साथ भी टूट जाती है आँधियों के दरमियाँ
टकराती है जो आपस में अहम की परतें
कहाँ खिल पाती है कोई गुल फिर वहाँ
झुकाने को बहुत कोशिश की आसमान को
तेरे शफ़क़त में इतनी बंदगी थी कहाँ
आईने में अभी भी कुछ साफ नही दिखता
पलको की नजाकत भी अब बोझिल थी यहाँ
बहुत सोचता रहा वो लगाने को तोहमत
गिरेबान के दाग कुछ और करते थे बयान
गिरा दिया उसने हर हद को फिर यहॉं पर
चेहरे पर दिखते थे अब हर झूठ के निशान
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments