
हर वक़्त एक सा कब रहता है यहाँ
साथ भी टूट जाती है आँधियों के दरमियाँ
टकराती है जो आपस में अहम की परतें
कहाँ खिल पाती है कोई गुल फिर वहाँ
झुकाने को बहुत कोशिश की आसमान को
तेरे शफ़क़त में इतनी बंदगी थी कहाँ
आईने में अभी भी कुछ साफ नही दिखता
पलको की नजाकत भी अब बोझिल थी यहाँ
बहुत सोचता रहा वो लगाने को तोहमत
गिरेबान के दाग कुछ और करते थे बयान
गिरा दिया उसने हर हद को फिर यहॉं पर
चेहरे पर दिखते थे अब हर झूठ के निशान
बड़ी महंगी थी यहाँ उसूलो की फेहरिस्त
कैसे मिटा देता अपने गुनाहों के निशान
जीने को यहाँ "राज" हर रोज़ तड़पते है
किरदार ही जो ऐसा कुछ पाया है यहाँ
क्यों करे शिकवा फिर हम तुम से मौला
तेरे हर चाल से कौन वाकिफ है यहाँ
कुछ तो "राज" होगी वजह इसके पीछे
जो आजमाता है खुदी को तू फिर से यहाँ
देखेंगे "राज" अब तेरे भी सितम हम
किसको पुकारे हम अपना अब यहाँ
हालातो से अब तक तो यही जान पाए
एक रोज़ की जिंदगी है जीने को यहाँ....
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments