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खुद से खुदा बन के बैठे है वो जो
परछाई में छुपी गुमनामी सा मैं
हर शय थे फ़िके फिर उसके तो आगे
आँसुओ में नमक की निशानी सा मैं
बहते रहे है अक्स बन कर उसी के
बहकी हुई सी जवानी सा मैं
पास आने को उनके चाहा बहुत था
बिखरे स्याही की बदनामी सा मैं
वक़्त के साथ "राज" बदले है चेहरे
पेशानी पे उकेरी निशानी सा मैं
पढ़ना जो चाहो फुरसत में आना
बीते वक़्त की कहानी सा मैं
बताता तुम्हे जो सुनते कभी तुम
अनकहे लफ़्ज़ों की जवानी सा मैं
सजदे में बैठे है हम तो यहाँ "राज"
काफिर थे पहले अब रूहानी हूँ मै....
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