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इक लौ इक तुम इक हम और दीवारे
कब तक यूँही इक दूसरे को निहारे
इतनी बंदिशे भी क्यों कुबूल थी हमे
अंजान से हम इक दूसरे को पुकारे
जलती हुई लौ और धड़कता हुआ दिल
साँसों की जुंबिश तेरे अधरों का तिल
पलके भी अब तो जड़ हो गई थी
तकती रही आँखे तू आकर तो मिल
लबो से भी कहते जो नज़रो से कहा था
आगोश में उनके फिर जाने क्या हुआ था
एक सरसराहट से फिर उनको जो छुआ था
रुकी थी जो साँसे फिर मैं खुद से जुदा था
लौ भी अब तो बुझने को चली थी
दीवारों पे हर हरकत यूँही जड़ी थी
ढूंढता हूँ मैं फिर से तपिस उस पल की
"राज" मिले थे जो हम तू मेरी बनी थी .....
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