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रात की गुमनामी में अक्स संजोता हूँ
ज्यो याद में तेरी जिंदगी को ढ़ोता हूँ
परछाईया भी अब तो पास नहीं आती
भरी दोपहरी उन राहो पे तुझे ढूंढने जो जाता हूँ
आँखों की चमक कुछ छीन सी गयी है
साँसों की धमक अब थम सी रही है
साथ जो गुज़ारे थे वो पल किसने चुराये
खता क्या हुई की तुम लौट के न आये
सवालो से घिरा खुद से भी भाग न पाता हूँ
शब्दों के भवर जाल में खो सा जाता हूँ
तुम भी तो व्यथित कही सोचती होगी
आईने क
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