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तट पर खड़ा चित्र स्थिर सा
रे पाषाण सोचता है क्या
तू भी हो जा तरल तनिक
हे मानुष सोचता है क्या
ये गहराई ये विस्तार और बहाव
क्यों लगे असहज सा तुझको
उतर थाह ले जल में तल की
तुझे रोकता है क्या
बह न सके तब भी नदियों सा यदि
झरना बनकर बहता जा
नेत्र बंद कर ले प्रायश्चित
हे पतित सोचता है क्या।
'राज वर्धन जोशी'
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