
ये दुनिया है दुनिया का रंग, तब कैसा-अब कैसा।
हर इंसां के जीने का ढंग, तब कैसा-अब कैसा।
मां-बीबी-बहिन-बेटी का रिश्ता, तब भी था और अब भी है।
प्यार-मुहब्बत का फरिश्ता, तब भी था और अब भी है।
हर रिश्ते में है अपनापन, तब कैसा-अब कैसा।
इंसां को मिला-‘तन’-ढकने को वस्त्र बनाये खुद उसने।
रूख को सजाने की खातिर, कई लेप लगाये खुद उसने।
अपने तन को ढकने का ढंग, तब कैसा-अब कैसा।
इश्क़ पे जां देते थे आशिक़, हुस्न के अब दीवाने हैं।
अपने मन से जो जल जायें, अब ऐसे ये परवाने हैं।
दीवानों का दीवानापन, तब कैसा-अब कैसा।
ज्ञान भी था सम्मान भी था, ज्ञान भी है सम्मान भी है।
मानवता का भान था मानव, संस्कारों की खान भी है।
संस्कारों का सारा रंग-ढंग, तब कैसा-अब कैसा।
भक्त भी गिरधर भी हैं, गुण है और गुणगान भी हैं।
झूम उठते भक्ति रस से, वो भक्त बड़े धनवान भी हैं।
भक्ति पे नाचे जो तन ‘राज’, तब कैसा-अब कैसा।
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