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मैं रोज़ झड़ता हूं, उभरता हूं फिर भी बढ़ता हूं
ज़िंदगी जीता हूं, फना होता हूं, फिर चलता हूं ।
कई बरस बीत गए यूं ही चलते हुए
इस रेत के दरिया में ,
मिट्टी हूं बस मिट्टी बनकर पानी को तरसता हूं।
कभी छांव में, कभी धूप में , आंधी तूफ़
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