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आज फिर एक बार
उसका ख्वाब चला आया,
मैंने फिर एक बार
अपनी आंखों में अश्क पाया।
कोशिश तो कि पोंछ लु इन्हें,
पर मैंने अपने शरीर को बेजान पाया।।
हां...
लगाई काफ़ी आवाज
मैंने खुदको,
शायद मज़ाक छोड़
बोलेगा मुझे कुछ तो।
न हिला और न कुछ बोला,
बस मुझे चुप चाप उहि सुनता रहा,
हां...
जिसे समझ रहा था
अभी तक मैं कोई सपना,
सच में छोड़ चुका था
शरीर अब मैं अपना।।
सोचा की मेरा शरीर मेरी छोड़
तुम्हारी जरूर सुनेगा,
तुम्हें अपने पास रोते देख
जरूर कुछ तो कहेगा।
हां आया था तुम्हारे घर
तुम्हें बुलाने,
ताकि मिलवा सको तुम
मेरे बेजान शरीर को मुझसे।
क्योंकि?
न अब रही थी मेरे शरीर को मेरी छाया,
तुम्हें चेहरे पर मुस्कान लिए सोते देख
वापस मैं लोट चला आया।।
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