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अब कुछ लिखने को मन नहीं करता
करता तो है बहुत पर दिल ही नहीं करता
मैंने अपने लेखन से ही दोस्ती की है शायद
इसलिए मेरा कोई जिगरी यार न ठहरा
वक्त के झंझावातों में अब लिखने का मन नहीं है
फिर गुफ्तगू किससे होगी दिक्कत यही है
जीवन सरल है ऐसा दिखता बहुत है
लेकिन उलझता है तब खलता बहुत है
जीवन की इस नैया में रुका हूं मझधार में
ना आशा है ना निराशा है बस शून्य हूं अपने विचार में...
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