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जब जब सोचता हूं

Rabindra Kumar BhartiRabindra Kumar Bharti December 31, 2022
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ख़ामोश सूनी अनदेखी

अनजानी उन राहों पर

जहाँ बेहिस थकी ये ज़ीस्त

अकेले ही सफ़र करती है

जहाँ ढ़ल कर कोई शम्अ

इक रोज ठिठक जाती है

और सब कुछ सिलवटों में

तबदील होता चला जाता है

पर्दे पे हर चीजें मुंज़मिद

होती चली जाती है

और फिर अचानक कहीं से

इक आवाज आती है-“अब चलो”

और मुसलसल इसी जारी सफ़र से

एक नए सफ़र का आगाज होता है

कहाँ ? किधर ? किस ओर

कोई नहीं जानता

है कोई ये जन्नत

या है जहन्नुम कोई

या दरमयाँ है कोई इक ख़ला

कुछ भी पुख़्ता दिखता नहीं

जब जब सोचता हूं

इस मौत और ज़िंदगी के बारे में

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