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वो दौर अब तो गुमनाम सा हो गया
हर शख़्स यूं गुनाहगार सा हो गया
मिठास बेस्वाद, फीका जहां हो गया
इधर आसमां के चाह में है दुनिया
उधर हर रिश्ता बेजान सा हो गया
खो गई कल की हर एक किलकारियां
शाद है न चमन खो गई रानाइयाँ
धुँधली हुई अपनत्व की परछाइयां
है कैसा दौर, मतलबी जहां हो गया
इंसानियत इंसां में है कहां खो गया
ज़ख़्म की चीख-चीख बेअसर हो रही
दरिंदगी बेखौफ शब-सहर टहल रही
आंख-कान मूंद कि हर कोई चल रहा
ज़ुबां-ज़ुबां बेजुबां, कुछ नहीं कह रहा
क्यों हर कोई यूं खुद में दफ़न हो गया?
०४/०१/२०२३
© रविन्द्र कुमार भारती
#rabindrakbhartii
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