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मेरे हृदय की उत्कंठा से उद्भूत हुआ,वह साकार स्वप्न हो तुम
तुम ही कहो, फिर कैसे मस्तिष्क का अधिकार स्वीकार करुँ
न मैं संन्यासी न वैरागी और न ही अपरिग्रह का व्रत ही लिया
तुम ही कहो, फिर कैसे अपना सत्व और स्वत्व मैं दान करुँ
संयम इतना नहीं है मुझमें,मैं सहज मनुष्य हूँ,त्रिगुणातीत नहीं
तुम ही कहो, फिर कैसे विस्मित करने वाला चमत्कार करुँ
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