ऊसर खेत , रेत - सा जीवन !'s image
Poetry3 min read

ऊसर खेत , रेत - सा जीवन !

R N ShuklaR N Shukla May 17, 2023
Share0 Bookmarks 102 Reads0 Likes
धँसते पाँव बालू ,
रुकते नहीं ,
अँटते नहीं हैं ,
जिंदगी में
भाव मन के !


बढ़ते जा रहे हैं...पैर
उत्कण्ठाएँ हृदय की
उमगती जा रही हैं
नदी जो हँस रही होगी 
नदी जो बह रही होगी
पहुँच कर नदी के घाट !
सुनूँगा मैं उसकी बात !
जो बचपन में सुनी थी ।


बचपन के 
वे दिन भी क्या थे 
नदी नहाने की उत्कंठा 
मन को बहुत अधीर बनाती
नन्हे ,नन्हें ,पैरों से चलते 
झुक बालू ,मुठ्ठी में भरते
भाई के संग हँसते-बढ़ते 
लोट-पोट भी हो-हो जाते !


थकने लगते पैर कभी
जब चलते-चलते ..
जलने लगता 
रोम – रोम 
जब सूर्यातप से ,
बैठ छहाँते !
घने वृक्ष की छाँव तले !


नदी किनारे की हलचल को
शिशु मन के कोने में भरते 
तरह-तरह के भाव सँजोते
शीघ्र पहुंचने की जल्दी में
गिर भी जाते ,मचल-मचल 
फिर –
सम्भल-सम्भलकर 
दौड़ भी जाते 
काश ! वो सुंदर ! 
दिन आ जाते ?


मन में सुंदर भाव भरे थे 
न जाने कितने स्वप्न सजे थे
स्वप्नों की उस हरियाली में
बचपन-मानस की उस क्यारी में
आशाओं के सुमन खिलाते 
बढ़ते जाते ....


बीते बचपन की 
उन स्मृतियों को मन में धारे , 
जीवन के इस काल-खंड में ,
स्मृतियों के मधु-प्रवाह में ,
पहुँच गया मैं नदी घाट पर !
जीवन के इस विषम-पाट पर
मैंने देखा ! क्या सोचा था 
क्या पाया ?


तब की बात थी अजब निराली
अब है सबकुछ खाली-खाली 
वही नदी है वही किनारे 
शांत और चुपचाप बहारें 
चहल–पहल अब नहीं यहाँ पर
कुछ-कुछ लगती कमी यहॉं पर ।


सुंदर -सुंदर वे घाट नहीं हैं !
कपड़े धोने के  पाट नहीं है
रुग्ण– दशा में नदी है दिखती
कुछ सहमी-सहमी सी लगती
अब वह कल-कल 
ध्वनि नहिं करती
नदी नहीं बहती ।


दिखती है वह 
दुबली - पतली
बिल्कुल ही चुप, 
कुछ नहीं कहती
जाने कैसी पीर 
हिया में –
लिए हुए ठहरी ! 
नदी नहीं बहती ।


नदी  किनारे वृक्षों की पाँतें ,
दूर-दूर तक नहीं हैं दिखतीं ,
झाड़ और झंखाड़ हैं दिखते ,
वो भी हैं सब रूखे - सूखे ।


इनकी हालत देख - देखकर ,
शोक-लहर एक उठी हृदय में ,
आत्म-ग्लानि से जी भर आया ,
मानव  करनी  पर  रोना आया ।
बहुत - बहुत  रोया - धोया,
थोड़ा भी मन को धीर न आया ।


कल-कल बहती नदी-धार पर
हमने ही भीषण बाँध बनाया ?
वृक्षों को निर्ममता से काटा,
नदियों  को  हमने ही पाटा !
अपने पाँव कुल्हाड़ी मारी ,
सोच-सोच फटती है छाती ।


स्वार्थी मन–कलुषित जीवन
अपनाकर ,
जीवन - पथ कठिन बना डाला ?
रसमय और अमृतमय जीवन को,
कितना विषमय कर डाला ?


मन भी बंजर,तन भी बंजर ,
ऊसर खेत , रेत-सा जीवन ,
सब कुछ बंजर कर डाला !
सब कुछ बंजर कर डाला !!




No posts

Comments

No posts

No posts

No posts

No posts