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धँसते पाँव बालू ,
रुकते नहीं ,
अँटते नहीं हैं ,
जिंदगी में
भाव मन के !
बढ़ते जा रहे हैं...पैर
उत्कण्ठाएँ हृदय की
उमगती जा रही हैं
नदी जो हँस रही होगी
नदी जो बह रही होगी
पहुँच कर नदी के घाट !
सुनूँगा मैं उसकी बात !
जो बचपन में सुनी थी ।
बचपन के
वे दिन भी क्या थे
नदी नहाने की उत्कंठा
मन को बहुत अधीर बनाती
नन्हे ,नन्हें ,पैरों से चलते
झुक बालू ,मुठ्ठी में भरते
भाई के संग हँसते-बढ़ते
लोट-पोट भी हो-हो जाते !
थकने लगते पैर कभी
जब चलते-चलते ..
जलने लगता
रोम – रोम
जब सूर्यातप से ,
बैठ छहाँते !
घने वृक्ष की छाँव तले !
नदी किनारे की हलचल को
शिशु मन के कोने में भरते
तरह-तरह के भाव सँजोते
शीघ्र पहुंचने की जल्दी में
गिर भी जाते ,मचल-मचल
फिर –
सम्भल-सम्भलकर
दौड़ भी जाते
काश ! वो सुंदर !
दिन आ जाते ?
मन में सुंदर भाव भरे थे
न जाने कितने स्वप्न सजे थे
स्वप्नों की उस हरियाली में
बचपन-मानस की उस क्यारी में
आशाओं के सुमन खिलाते
बढ़ते जाते ....
बीते बचपन की
उन स्मृतियों को मन में धारे ,
जीवन के इस काल-खंड में ,
स्मृतियों के मधु-प्रवाह में ,
पहुँच गया मैं नदी घाट पर !
जीवन के इस विषम-पाट पर
मैंने देखा ! क्या सोचा था
क्या पाया ?
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