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हे कृषक !
धरा के आदि प्राण !
श्रम को है ,साधा तुमने ,
हर बाधा को दूर किया ,
एक केन्द्र में कर वर्तन !
श्रम-मूल भावनाओं को भर –
श्रम के अनन्त पथ - विंदु
समेटे चलते हो !
तेरे श्रम की प्रचण्डाग्नि में
प्रतिकूल भाव हैं जल जाते !
तेरे श्रम के उत्पन्न अन्न से –
प्राणी हैं शोभा पाते !
ओ ! महत् हृदय !
श्रम के मशाल !
जो भी जितना श्रम करता है
उसको उतना फल मिलता है
पर , नहीं मिला प्रतिदान मनोहर –
तेरे श्रम का !
तेरा जीवन कितना दुर्वह !
श्रम के घोर विवर्तन ! वर्तन में !
हो स्वत्वपूर्ण घूमता रहा !
शतघूर्ण बना ! आघूर्ण बना
पर , नहीं हुआ उन्मोचन !
तेरे जीवन का !
श्रम के विवर्तमय पथ पर , तू–
चलता ही रहा , नहीं रुका –
क्षण भर भी !
ओ ! कृश गात !
वंदित हैं तेरे कर्म सकल !
प्रेम-सुधा ! बरसाते तुम हो
नित मङ्गल के गीत तुम्हीं गाते हो !
तेरे जीवन में –
कब होगा प्रात ?
ओ कर्म-पथिक !
घात और प्रतिघात
न जाने कितना सहते !
लोगों की ना जाने कितनी
कड़वी बातें सुनते ! फिर भी –
कभी नहीं विचलित होते –
अपने पथ से !
नहीं करते कुछ भी प्रतिवाद !
हे उर के उदार !
तेरा 'उर' अम्बुधि-सा विशाल !
हृद पर तू कितने सहे घाव !
फिर भी श्रम को है अपनाया !
औ' दूर किया नैश्यान्धकार !
इस जग से !
हो गए पार तुम तम से !
श्रम का यह पथ –
भाता जिनको जीवन में !
नैराश्य कहाँ आता ? उनके मन में ?
भर दो ! भर दो !
ऐसा वर दो –इस जग को
धन – धान्य - धाम !
आपूरित कर दो !
मिटें सभी मालिन्य-भाव !
हे ज्योति प्रखर !
इस अवनी से , उस अम्बर तक !
गहन तिमिर को चीर ! जलधि –
आन्दोलित कर दो !
भर दो प्रकाश !
खिल उठें दिशाएं ! अष्ट याम !
~राम निवास शुक्ल
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