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यही सन् '१९८७' की बात !
शहर का नाम–इलाहाबाद !
प्राचीन नाम की –
गरिमा से मण्डित !
आज का प्रयागराज !
कुछ मन में गुनता चल रहा था...
जिंदगी की दशा और दिशा की
तलाश में !
विश्व-विद्यालय से आनंद भवन की ओर
धीरे–धीरे बढ़ते कदम ..
जीवन का आनंद लेने या ढूंढने–
जीवन का पथ !
और फुटपाथ ....
उस पर सोईं , कुछ जगीं हुईं
आड़ी तिरछी रेखाओं जैसी
बेतरतीब मासूम–मजलूम
जिंदगियाँ !
बहुमूल्य पुस्तकें ! कौड़ी के भाव !
जिनमें कितने सुन्दर अनमोल भाव !
और गर्द – ओ – ग़ुबार में सनी !
और बस ! एक आह ! फिर –
आहों का दौर... कराहों का सिलसिला...
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