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भौतिक विकास !
भौतिक विकास की -आँधी में
हो रहा प्रकृति का महाक्षरण !
मानव–मन का अति ह्रास
संत्रासमय लघुतम जीवन !
केन्द्रीभूत हिंसक-आयुध
बन गए काल !
बार-बार काँपती धरा
थर्राता ! नभ – मण्डल
विकल-प्राण करते क्रंदन !
क्षत-विक्षत हो रहा विश्व-मनस् ।
भोगों के प्रति अमित लिप्सा !
असीमित सुख की इच्छा !
छल–प्रपंच पापमय कर्म !
स्वार्थों से आप्लावित जीवन !
कितना दुष्कर ?
कितना मृत-प्राय ?
भोग – विलास
भौतिक सम्मोहन
प्रकृति के अंगों का दोहन
कितना नृशंस जीवन ?
कारूणिक रुदन !
प्रकृति का अश्रुपूर्ण क्रंदन !
मनुज का कितना –
कुण्ठित – दूषित मन !
अति विक्षुब्ध हैं महाअब्धि
भीषण जल – प्लावन
घायल हैं पर्वत वक्षःस्थल
भू – डोल भयंकर !
उद्विग्न हो उठे प्रकृति अंग
विच्छुरित वह्नि ताण्डव नर्तन !
सब भष्मीभूत मानव वर्तन !
जीवन को करने अंग -भंग
क्या नहीं चाहिए हमें संग
इनका ?
भौतिक-सुख के व्यामोह-मोह में
नष्ट – भ्रष्ट हैं प्रकृति अंग
विष-तुल्य बन गया पर्यावरण
इनका संरक्षण , जीवन- रक्षण !
सम्भलो ! सम्भलो !
हे श्रेष्ठ पूर्णधर मानव !
नदियों की धारा मत रोको !
पर्वत का सीना मत छीलो !
वृक्षों की हत्या बंद करो !
सागर के प्रशांत उर को –
विक्षोभित करना बंद करो !
उसकी लहरों को मत छेड़ो !
हे ज्ञानी – विज्ञानी मानव !
सृजित मतकर हिंसक हथियार !
पाल मत मन में तक्षक नाग !
लगा मत जग-जीवन में आग !
करो जड़ – चेतन का उद्धार !
सुन्दर हों तेरे कर्म सकल
जग में फैले सुकीर्ति विमल ।
हृदय करता है अनुरोध !
तजें हम सब आपस का रोष !
प्रकृति संग बढ़े हमारा प्रेम !
विषम-सम झेलें मिलकर संग
न हो हम सब का जीवन भंग !
पशुता का हो विध्वंस यहाँ
फैले जग में मनुजत्व शक्ति !
धरती का दुर्वह हटे भार !
करूणामय भावों का हो प्रसार !
करें सुकृत , कुकृत्यों को तज दें
हृदय में पालें कोमल भाव !
विश्व की पीड़ा हर लें !
कोटि-कोटि हो वृक्षारोपण !
असीमित हो जल - संरक्षण !
धरा पर बहें सरित , सर , सिंधु !
सृजन का हो अनन्त विस्तार !
अभय हो रहें प्रकृति के अंग !
मिले वृक्षों की शीतल छाँह
सुंदर कर्मों के सुमन
खिलें धरती पर ,
मिटें सभी संताप -ताप !
इस भव का !
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