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प्रकृति,पर्यावरण और हम (भाग-१)

R N ShuklaR N Shukla March 21, 2023
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भौतिक विकास !
भौतिक विकास की -आँधी में
हो रहा प्रकृति का महाक्षरण !
मानव–मन का अति ह्रास
संत्रासमय लघुतम जीवन !

केन्द्रीभूत हिंसक-आयुध
बन गए काल !
बार-बार काँपती धरा 
थर्राता ! नभ – मण्डल 
विकल-प्राण करते क्रंदन !
क्षत-विक्षत हो रहा विश्व-मनस् ।

भोगों के प्रति अमित लिप्सा !
असीमित सुख की इच्छा !
छल–प्रपंच  पापमय कर्म !
स्वार्थों से आप्लावित जीवन !
कितना  दुष्कर ? 
कितना मृत-प्राय ?

भोग – विलास 
भौतिक सम्मोहन 
प्रकृति के अंगों का दोहन 
कितना नृशंस जीवन ?

कारूणिक रुदन !
प्रकृति का अश्रुपूर्ण क्रंदन !
मनुज का कितना –
कुण्ठित – दूषित मन !

अति विक्षुब्ध हैं महाअब्धि 
भीषण  जल  –  प्लावन 
घायल हैं पर्वत वक्षःस्थल 
 भू  –   डोल   भयंकर !

उद्विग्न हो उठे प्रकृति अंग 
विच्छुरित वह्नि ताण्डव नर्तन !
सब भष्मीभूत मानव वर्तन !
जीवन को करने अंग -भंग 
क्या  नहीं चाहिए  हमें संग 
इनका  ?

भौतिक-सुख के व्यामोह-मोह में
नष्ट – भ्रष्ट  हैं प्रकृति अंग 
विष-तुल्य बन गया पर्यावरण 
इनका संरक्षण , जीवन- रक्षण !

सम्भलो ! सम्भलो !
हे श्रेष्ठ पूर्णधर मानव !
नदियों की धारा मत रोको !
पर्वत का सीना मत छीलो ! 
वृक्षों  की  हत्या  बंद करो !
सागर के  प्रशांत  उर  को –
विक्षोभित करना बंद करो !
उसकी लहरों को मत छेड़ो !

हे ज्ञानी – विज्ञानी मानव !
सृजित मतकर हिंसक हथियार !
पाल मत मन में तक्षक नाग !
लगा मत जग-जीवन में आग !
करो जड़ – चेतन का  उद्धार !
सुन्दर हों  तेरे  कर्म सकल 
जग में फैले सुकीर्ति विमल ।

हृदय   करता  है  अनुरोध !
तजें हम सब आपस का रोष !
प्रकृति संग  बढ़े हमारा प्रेम !
विषम-सम झेलें मिलकर संग 
न हो हम सब का जीवन भंग !

पशुता का हो विध्वंस यहाँ
फैले जग में मनुजत्व शक्ति !
धरती  का  दुर्वह हटे भार !  
करूणामय भावों का हो प्रसार !
करें सुकृत , कुकृत्यों को तज दें
हृदय में पालें कोमल भाव !
विश्व की पीड़ा हर लें !

कोटि-कोटि हो वृक्षारोपण !
असीमित हो जल - संरक्षण !
धरा पर बहें सरित , सर , सिंधु !
सृजन का हो अनन्त विस्तार !
अभय हो रहें प्रकृति के अंग !
मिले वृक्षों की शीतल छाँह 
सुंदर कर्मों के सुमन 
खिलें धरती पर , 
मिटें सभी संताप -ताप ! 
इस भव का !

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