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सत्ताओं से परित्यक्त – जन !
परिवारों से परित्यक्त – वृद्ध !
और रेलवे के परित्यक्त – गृह !
लगता है तीनों सहोदर भाई हैं !
इनके लिए सत्तायें कसाई हैं !
शायद इनकी जन्म-कुंडली में
लिखा ही है – परित्यक्त !
सुविधाओं से वंचित
सत्ताओं द्वारा प्रवंचित !
बाहर खड़े है , जैसे-तैसे पड़े हैं
हालांकि सर्दी-गर्मी-धूप-बारिश,
बवण्डर , झंझावाती तूफानों से
ये तीनों इक उम्र लड़े हैं !
इनके जिस्म से खालें ,
एक -एक ईंट
उधेड़ी जाती रही हैं निरन्तर !
फिर भी
मजबूत इतने कि अटल अड़े हैं
मजबूर इतने कि मौन खड़े हैं
भले ही ये वयोवृद्ध हैं !
पर,चेतना से समृद्ध हैं !
इनकी अन्तश्चेतनाएं
मरी नहीं हैं , जीवित हैं
बावजूद, इतनी प्रताड़नाओं के –
इनकी चेतनाएं ले रही हैं आकार
एक न एक दिन बनेगीं आग !
जला डालेगीं सारी प्रवंचनायें
इनकी उनकी सबकी !
इस अर्थप्रधान दुनिया में
सदा से सुपूजित है अर्थ
व्यर्थ को पूछता है कौन ?
रेलवे के परित्यक्त गृह हों ,
सत्ताओं से उपेक्षित जन हों ,
या घर-आंगन से बहिष्कृत वृद्ध !
सिर्फ धनागम का खेला है !
बहुत बड़ा झमेला है !
कहानी घर की हों या
सत्ता के गलियारों की
अर्थवत्ता को स्थान कहाँ ?
इनकी मौन चीत्कारें
कर दी जाती हैं अनसुनी
रेलवे के परित्यक्त गृह जैसे
कितने हैं ये – निरीह !
ये ..................अतिवृद्ध !
साक्षात ..........स्वयंसिद्ध !
राष्ट्र के मन हैं ये !
कितने निरीह जन हैं ये !
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