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अन्न के बीजों में कुछ मरे हुए अन्न के दाने भी होते हैं ।
खेतों में सभी बीजों को पुष्ट करने के लिये , उन्हें उगने के लिए पर्याप्त उर्वरक प्रदान किये जाते हैं ।
अनाज के अधिकांश दानों में पोषण प्राप्त करने की अदम्य क्षमता और ललक होती है ।
स्पस्ट है कि पोषण प्राप्त दाने, सभी के लिए पोषण के कारण बनते हैं , स्वास्थ्य की अभिवृद्धि में लाभकारी होने की भूमिका निभाते है ।
कुछ ऐसे दाने जिनको 'मरे हुए दाने' कहा जाता है।ये अच्छे दानों के साथ आ जाते हैं । खाते समय मुँह को , दाँतों को क्षतिग्रस्त कर देते हैं।
इन्हें भी पोषण के लिए अवसर ,सहयोग और वातावरण दिया जाता है परंतु वे आगे बढ़कर अवसर प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं । इसलिए धीरे -धीरे कमजोर होकर मर जाते हैं ।
ये दाने मरे क्यों ?जबकि इन्हें भी पुष्ट होने के लिए समुचित अवसर ,सहयोग एवं वातावरण मिला था । परन्तु ये निष्क्रिय रहे । इनकी निष्क्रियता ही इनकी दुर्गति एवं अवनति का कारण बनी ।
निष्क्रिय दाने हों या निष्क्रिय व्यक्ति सभी के लिए फूल नहीं , शूल बन जाते है । दुर्गति का कारण बन जाते हैं ।
मनुष्य जब अपनी जिम्मेदारियों , अपने कार्यों के प्रति निष्क्रिय हो जाता है तब वह सभी तरह के अवसरों-योजनाओं से वंचित होकर मृतप्रायः हो जाता है ।
घर , परिवार , समाज या देश के लिए अनुपयोगी हो जाता है।
अनुपयोगी को कौन पूछता है ? मरे बीज की तरह फेंक दिया जाता है ।
अतः स्पस्ट है कि
" जीवन की सार्थकता सक्रियता में है ।"
" जीवन की निरर्थकता निष्क्रियता में है ।"
अतः
"निष्क्रियता साक्षात् मृत्यु है।"
"सक्रियता ही जीवन है। "
जीवन ! सार्थक तभी बनता है जब हमारे जीवन में लक्ष्य के प्रति , कर्म की निरंतरता हो। सफलताएं अचानक नहीं मिल जातीं । लगन पूर्वक श्रम में डूबना पड़ता है ।
"अजगर करे न चाकरी , पंछी करे न काम " सदृश बातें वर्तमान युग में अपनी अर्थवत्ता खो चुकी हैं ।
अतः
विद्यार्थी , अध्यापक , प्राध्यापक, कवि ,लेखक या अन्यान्य क्षेत्रों में कार्यरत सभी श्रेणियों के लोगों को अपने कार्यों के प्रति निष्ठावान रहना ही होगा , श्रम में निरंतर लीन रहना ही होगा , क्रियाशील जीवन अपनाना ही होगा तभी , हम अपनी प्रगति के साथ - साथ राष्ट्र का विकास करने में समर्थ हो सकते हैं ।
इति शुभम्
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