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हे मातृ शक्ति !
तुमको मेरा शत् शत् प्रनाम !
पुरुसत्व-मोह के दुरभिसंधियों को
तुमने कितना झेला!
न जाने कितने ही अतिचारों को
हँस - हँस के रेला-ठेला !
सबके हितार्थ ही तेरा सुन्दर कर्म अहो !
हम नहीं समझ सके तेरा अनुपम धर्म अहो !
जिनके भी लिए तूने, जीवन का दान किया !
उन लोगों ने तुमको, यह कैसा प्रतिदान दिया !
तेरे विभीषिकामय जीवन को लख कर–
मन करता रहता है अपने से प्रश्न सदा !
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