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मैं किसान हूँ

R N ShuklaR N Shukla March 31, 2023
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मैं किसान हूँ
मेरा जीवन श्रम है।
आप को कोई भ्रम है ?

मैं मंदिर-वन्दिर 
मस्जिद-वस्जिद
नहीं जानता !
मैं जानता हूँ
धरती का अस्तित्व !
मैं खेत जाता हूँ 
वही मेरा भगवान है !

मैं ध्वंस या विध्वंस नहीं
साक्षात निर्माण हूँ ।
हाँ , मैं किसान हूँ ।

मैं ग्रह - नक्षत्रों से
उषा काल से , परिंदों से ,
झरनों से , नदियों की लहरों से 
कर्म की प्रेरणा ग्रहण करता हूँ ।

जब शेष दुनिया !
सोती है गहरी नींद ,
तब भी मैं जागता  हूँ 
मिट्टी में हाथ-पैर सानता हूँ 
क्योंकि मैं जानता हूँ 
दो गज जमीन और 
दो रोटी की कीमत !

आप कहेंगे - 
क्या ही फालतू बात है 
पर मुझे भली-भांति- 
यह ज्ञात है कि –
जो कुछ भी सुंदर है 
वह सब कुछ श्रम-साध्य है!

पूरी दुनिया को 
मेरी जरूत है ।
अतः दिन - रात !
श्रम में डूबना मेरा काम है ।

मैं किसान हूँ 
हल की हराई में
जुते खेत की –
गहराई मापता हूँ ।
पर आज तक कोई भी
मेरे मन की पीड़ा की
गहराई नहीं माप सका !

मैं किसान हूँ 
कभी-कभी 
दार्शनिक भी
हो जाता हूँ !

मैं कहता हूँ –
केंद्रित कर्म और
केन्द्रित श्रम में 
बड़ी शक्ति होती है !
इनसे स्वयं की क्षमताएं 
विकसित होती हैं , 
सफलताएं सामने आ जाती हैं ।

मैं किसान हूँ !
माना कि मेरा पेट 
नहीं भरता , पर
दुनिया का पेट भरता हूँ 
श्रम में निरन्तर लीन हूँ 

अपने बारे में 
अनगिनत उलाहनाएँ ,
उपहास से भरी बातें ,
तिरस्कार आदि -आदि
बेतुकी बातें , करामातें 
सुनता और देखता हूँ 
फिर भी 'मौन' रहकर
अपना कर्म करता हूँ ।

कभी -कभी मुझे-
कंजूस और स्वार्थ भी
बन जाना  पड़ता है !
जो हमारा जातीय संस्कार है
पर हमारी संस्कृति परमार्थ है ।
अपनी संस्कृति को जीता हूँ ,
जो मिलता है खाता हूं , पीता हूँ ।

मैं  किसान हूँ !
खेतों में जाँगर पेरता हूँ 
अच्छे दिन की तलाश में 
कभी जीवन में सुबह की
मीठी धूप नहीं आई !
आई भी तो दुपहरिया की
चिलचिलाती तेज धूप !
अंगारे बरसाती , आग लगाती
तन में , मन में , जीवन में !
फिर भी उस आग से खेलता हूँ ।

मैं किसान हूँ !
मेरे श्रम पर टिका है जमाना !
मेरी क्षणिक शिथिलता से 
बहुतों को नसीब नहीं होगा–
अन्न का दाना !
अतः अपने कर्म में निरत हूँ ।
मुझे अपनी मिट्टी से ,
देश की जनता से बेहद प्यार है !

मै किसान हूँ !
मेरा दर्द मेरा पीछा करता है !
पर मेरी चेतना उसे पीछे छोड़-
आगे निकल जाती है ।
मेरे लिए न जाने कितने
नारे दिए गए ,
पर , राजनीति ने 
स्लोगनों की परिधि से बाहर 
कुछ भी नहीं किया !
राजनीतिक कुचक्रों की चक्की में
मैं पीसता रहा , 
आज भी पिस रहा हूँ ,
घिस रहा हूँ ।

सारी समृद्धि ! 
विकास का समूचा चक्र !
मेरे लिए नहीं ! क्यों ?
मैं पूछता हूँ !
मानव , मंगल और चंद्र से लौट आया
और मैं खड़ा हूँ खेत में ,
पड़ा हूँ जमीन पर ,
सोता हूँ खाट पर  !!
जोहता हूँ बाट !!

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