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१)
अंतर्मन से उठती पीड़ा !
कुछ नया रचूँ क्या ?
छोड़ व्यथाएँ ! जन-मन की ,
प्रेम के गीत लिखूँ क्या ?
२)
बहुत हो चुकी आँख-मिचौनी !
बहुत हो चुकी होड़ा-होड़ी !
सबकुछ छोड़-छाड़ कर
तुम सब के मुखौटों को–
फोड़-फाड़कर
आज अभी विद्रोह लिखूँ क्या ?
३)
अंदर की ज्वाला धधक रही
अब छोड़ ! शान्ति की बात –
क्रान्ति के गीत लिखूँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
४)
नहीं नहाऊँगा अब –
मैं , सुशीतल जल से
धरूँ हाथ में दण्ड !
लहू को पिघलाऊँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
५)
तुम सब की असमर्थताओं को
जान चुका , पहचान चुका मैं
जन-जन के सुप्त-हृदय में –
जागर्ति का गान भरूँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
६)
तुम सब के कुटिल मोह-पाशों में
नहीं फसूंगा
सम्प्रदाय औ' जातिवाद के
नारों का सत्यानाश करूंगा
तुम सब के कुकर्मों के–
कीचड़ में मैं नहीं सनूँगा
तुम सब की झूठी बातों का
पर्दाफाश करूँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
७)
तुम सब की –
घातक बातों में नहीं पगूँगा
सत्कर्मों के बल से –
तुम सब के कुकर्मो का
नाश करूँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
८)
दिग् – दिगन्त चहुँओर
गगन, अवनी,जल-तल में
हो प्रबुद्ध ! बन शुद्ध ! सहज
जन-मन की स्फूर्ति बनूँ क्या ?
कुछ नया रचूँ क्या ?
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