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घटती उम्र! बढ़ती तृष्णाएं!
मौन हो चलती रहती है
जिन्दगी!
भीतर ही भीतर
कभी बर्फ-सी जमती है
कभी पिघलती है तो–
किसी सूरत-ए हाल में–
महक कर बहक जाती है
जिंदगी!
एक अनाम द्वंद्व को चुप-चाप
ढ़ोती हुई जीती-जाती है,
कभी हँसती है,कभी गाती है, तो
कभी रो-रोकर पागल हो जाती है
जिन्दगी!
ज
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