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कविता की क्रांति-धारा

R N ShuklaR N Shukla March 28, 2023
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मैंने देखा –
सद्यः एक कविता 
दौड़ पड़ी ....
छद्मावरण को तोड़ती
सारे भ्रमों को छोड़ती
टूटे दिलों को  जोड़ती
जीत का उद्घोष करती 
चल पड़ी कविता ....

आक्रोशित निःशब्द-शांति में
क्रान्ति – ध्वनि – धारा बहाती
राह   के   विघ्नों   को   हरती
आम  जन  की   बात  करती
बढ़ चली कविता !

माना कि –
इसकी क्रांति -धारा
होती नहीं प्रत्यक्ष है 
पर, अंदर ही अंदर 
वह सदा –
बहती  बहुत ही तीब्र है ।

आन्तरिक साहस है इसमें 
व्योम–सा अपनत्व  इसमें 
संघर्ष का है ममत्व  इसमें 
नव–सृजन का  मंत्र इसमें 
रूक नहीं सकती  कभी जो
वहअद्वितीय ध्वनि है जिसमें ।

सूखे  दिलों  को  सींचती 
विगलित-जनों को संग ले
क्रान्ति का उद्घोष करती  –
हँस पड़ी कविता ।

रूदन में भी गान रखती
जागृति का ध्यान रखती
सृजन में विश्वास रखती
जोड़ कर वह प्राण-धारा
तोड़   देती  अन्धकारा  !

सव्य-साची बन सदा से
भेद देती लक्ष्य को ,
ध्वंस या विध्वंस में ––
नव सृजन के आयाम गढ़ती 
सूखे  दिलों  में  प्राण  भरती
उच्छ्वसित बन प्राणधारा
बह चली कविता .....


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