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मैंने देखा –
सद्यः एक कविता
दौड़ पड़ी ....
छद्मावरण को तोड़ती
सारे भ्रमों को छोड़ती
टूटे दिलों को जोड़ती
जीत का उद्घोष करती
चल पड़ी कविता ....
आक्रोशित निःशब्द-शांति में
क्रान्ति – ध्वनि – धारा बहाती
राह के विघ्नों को हरती
आम जन की बात करती
बढ़ चली कविता !
माना कि –
इसकी क्रांति -धारा
होती नहीं प्रत्यक्ष है
पर, अंदर ही अंदर
वह सदा –
बहती बहुत ही तीब्र है ।
आन्तरिक साहस है इसमें
व्योम–सा अपनत्व इसमें
संघर्ष का है ममत्व इसमें
नव–सृजन का मंत्र इसमें
रूक नहीं सकती कभी जो
वहअद्वितीय ध्वनि है जिसमें ।
सूखे दिलों को सींचती
विगलित-जनों को संग ले
क्रान्ति का उद्घोष करती –
हँस पड़ी कविता ।
रूदन में भी गान रखती
जागृति का ध्यान रखती
सृजन में विश्वास रखती
जोड़ कर वह प्राण-धारा
तोड़ देती अन्धकारा !
सव्य-साची बन सदा से
भेद देती लक्ष्य को ,
ध्वंस या विध्वंस में ––
नव सृजन के आयाम गढ़ती
सूखे दिलों में प्राण भरती
उच्छ्वसित बन प्राणधारा
बह चली कविता .....
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