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क्या लिखूँ दिन की कविता !
उसने ही मुझको लिख डाला !
उषःकालकी –
प्रथम रश्मि पर
चढ़ कर आई थी कविता !
कोमल भाव भरा मन में
जीवन में भर दी तरुणाई !
आलस छूटा ! हुआ सवेरा
सोते से वो जगा गई !
आँख खुली तो देखा मैंने –
निकल पड़े हैं नीड़ों से पंछी
पंख – पसारे दूर... गगन में
चह - चह करते उड़ते जाते
दूर दिशा में दाना चुगने ..
क्यारी में फूलों की रंगत
खुश हो-होकर झूम रही !
सुंदर दुनिया ! सामने खड़ी !
सुबह-सुबह की रौनक देखी
मैं भी 'श्रम' में लीन हुआ !
जीवन के इस मध्य-काल में
सूरज -सा जीवन दमक उठा !
श्रम से उपजे स्वेद कणों से
तन-मन मेरा तरबतर हुआ !
दिन बीता फिर बीती सन्ध्या
धीरे ....धीरे दिन गुजर गया !!
कैसे-कैसे बीत गये दिन !
क्या इसकी कोई खबर मिली ?
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