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कवि हर क्षण खपाता है
मन– मष्तिष्क !
शरीर और प्राण !
तब सृजित होती है–
कविता !
शरीर मरता है,आत्मा नहीं !
कवि मरता है,कविता नहीं!!
कवि के "प्राण"होते हैं शब्द !
और ये 'शब्द'मरते नहीं कभी ।
"शब्द ही ब्रम्ह है" उपनिषद् –
ऐसा कहता है !
शब्द नहीं मरता है !
'कवि' मरकर भी–
अमर रहता है ।
कवि – कविता और शब्द !
एक दूसरे से कुछ इस तरह से
रहते हैं– सम्बद्ध और आबद्ध
जैसे कि – शब्द में उसका अर्थ !
और प्रतिबद्ध रहते हैं उन-उन
प्रासंगिक मुद्दों –समस्याओं से
जो होती हैं –समयऔर जन की बात !
और कविता बन जाती है–आवाज !
सौंदर्य से भर उठती है – कविता !!
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