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संधि अनुचित है कभी तो
संधि को श्रद्धांजलि दो
आत्महंता मत बनो
ग़र सामने कोई भी हो ।
तुम सदा ब्रह्मांश हो
गीता तुम्हारा स्वर बने
सद्कर्म करते ही चलो
विश्व को गीताञ्जलि दो !
बेखौफ़ हो जीवन जियो
मरुभूमि या रणक्षेत्र ही हो
सत्य के पथ बढ़ चलो,औ'–
झूठ को तिलाञ्जलि दो !
अकर्मण्यताओं को तजो
कर्तव्य-पथ पर दृढ़ रहो
धीरज धरो साहस वरो
श्रम में सदा निरत रहो !
पशु – पंछी औ' ग्रह - नक्षत्र
सब रहते हैं श्रम में लीन !
श्रम का जिसने भी त्याग किया
वह त्वरित बना निर्बलऔ' दीन !
अपनाकर श्रम को जीवन में
जीवन को चमकाओ !
स्वयं महक कर
औरों को भी महकाओ ।
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