बीते शब़ बीते बरस का इक साथी याद आया
फिर बहुत देर तक और कुछ याद नहीं आया।
क़ासिद की थी ये गुस़्ताखी या अना मेहबूब की
कई खत लिखे पर किसी का जवाब नहीं आया।
नींद को जलाकर वस्ल की रात को रौशन किया
हम इंतजार में रहे पर कोई ख़्वाब नहीं आया ।
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