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सत्ता


सत्ता की गलियों से दूर

जहां हवा थी सांस लेने को

जहां रास्ता था चलने को

जहां धड़कते दिल के नीचे एक पेट था।

जहा सांसद-वांसद कुछ नहीं था,

जहा अख़बार नहीं मिलते थे

जहा "न्यूज़-रूम"जैसा कोई शब्द नहीं था

वहा भी सत्ता चली हमपे।


हर चीज़ की सत्ता चली हमपे

जैसे कुछ भी मिलने से पहले

या कुछ भी मिलने के बाद।

और इन दोनों के बीच में

न मिलने की सत्ता चली हमपे।


जैसे रोटी के एक टुकड़े की,

शरीर मिला तो किसी बिमारी की

प्रेम मिला तो हैसियत की

एक क्रूर सी सत्ता चली हमपे।


धुप मांगी तो बरसात की

समाज की,रिवाज़ की

भद्दा सा शब्द"जात"की

जिल्लत से भरे घरो में झांकते

उस "सो कॉल्ड"रोमांटिक से चाँद की,

बेवजह हर बात की

बात-बात पे सत्ता चली हमपे।


चाहे आसमान की और कहीं भी इशारा करो

चाहे धरती का कोई भी कोना चुनो

हम आपको समझायेंगे

जो आप शायद समझ न रहे हो

कि कहां-कहां नहीं सत्ता चली हमपे।


अगर आप समझ रहें हो

जो मै समझाना चाहता हु

तो बस इतना पूछना चाहता हु

क्यों इतनी सत्ता चली हमपे।

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