
अपने ही घर में रानी को अबला बनाया था
केश खींच दुःशासन जब भरी सभा में लाया था
झुक गए लज्जा से सर नारी सम्मान उछाला था
वीरों की सभा का भयानक वो नजारा था
धर्मराज ने बीच सभा में कौन सा धर्म निभाया था
हार गए खुद को किस अधिकार से पत्नी को दांव लगाया था
हाथ जोड प्रश्न तमाम वो नारी सब अपमान में
बिलक- बिलक पूछ रही हक अपने सम्मान के
फिर जा राजा के पास गुहार कर रही विश्वास से
सर झुक गया राजा का पुत्र मोह अंधकार में
मर्यादा की सीमा भी अब सीमा को थी लांघ गई
असभ्य शब्दों के बाण से जब नारी सम्मान छलनी हुई
अहंकार में दुर्योधन मर्यादा सब भूल गया
निर्वस्त्र करदो इस नारी को दुःशासन को आदेश दिया
चीख पुकार उस नारी की न कोई वहाँ सुन सका
सारी में लिपटी नारी लज्जा जब वो पापी खींच रहा
लगा शक्ति फिर हार कर अब एक ही सहारा था
हे गोविन्द हे केशव जब उस अबला ने पुकारा था
थक गया फिर खींच-खींच पर सारी वो न खींच सका
माया थी कृष्ण की जो पापी वो न भेद सका
पुकार सुन उस अबला की जो लाज़ बचाने आए तुम
'हे लीलाधर हे कृष्ण हर नारी पर उपकार किया!
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