
यदि बेटियां उड़कर आकाश छूना चाहें ,
तो ये समाज उनके पर कुतर देता है ।
बेटियां घर छोड़कर अपने सपनों के पीछे चली जाएं ,
तो ये समाज उन्हें बदचलन की पदवी देता है ।
बेटियां अपने साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाएं ,
तो ये समाज उनकी आवाज दबाने के सारे जतन करता है ।
बेटियां अगर अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुने ,
तो ये समाज उनका जीना मुश्किल कर देता है ।
इसके विपरित जब बेटियां कोख में मार दी जाती है ,
तब यही समाज जाने क्यों गूंगा बन जाता है ।
जब किसी पिता को उसकी बेटी की शादी में दहेज देने के लिए कर्ज लेना पड़ता है ,
तब यही समाज जाने क्यों चैन कि नींद सो रहा होता है ।
जब किसी की बेटी को उसके ससुराल से सिर्फ इसलिए निकाला जाता है क्यूंकि उसके पिता दहेज नहीं दे सके ,
तब यही समाज जाने क्यों अपनी आंखें बंद कर लेता है ।
इसी दोगले समाज के साथ चलने के लिए हम लड़कियों को बचपन से सिखाया जाता है । आखिर क्यों...?
जो समाज न्याय का मतलब ही नहीं जानता वही न्यायाधीश बना बैठा है ।
- प्रतिमा पांडेय
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