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जो गुज़रती उम्र के अहबाब हों
नींद के साए में झुलसे ख़्वाब हों
चाक की सूरत हरी हो दिल मिरे
दर्द के सारे शजर शादाब हों
हिज़्र की सारी क़िताबों को पढ़ें
लोग जो याँ वस्ल को बेताब हों
ये तक़ाज़े हैं जुनूँ के वास्ते
सब गली सहरा नदी बे-आब हों
फिर न होगी दीद की हसरत हमें
गर कई चेहरे तिरे हम-ताब हों
या उसी की आग में जलते रहें
या उसी दो-चश्म में गर्क़ाब हों
नाज़ करना उस नदी के हुस्न पर
जिस नदी के सैकड़ों पायाब हों
रक्स तक करना नहीं आता हमें
किस तरह से दश्त में सैराब हों
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