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किसी की आँख के तारे, किसी के माह-पारे थे,
किसी की ना-मुकम्मल सी ग़ज़ल के इस्तियारे थे।
हवा ने नाम किस का रेत पर अब के उकेरा है,
बगूलों की ज़ुबाँ पे कल तलक किस्से हमारे थे।
घटा के होंठ पर आई मिरी आहों की गर्जन थी,
छतों की आँख से गिरते मिरी अश्कों के धारे थे।
फ़ज़ा ने हस्र बरपाया,ख़िज़ाँ ने अश्क़-बारी की,
फ़लक़ के जिस्म को छूते ज़मीनों के ग़ुबारे थे।
भटकते दर-ब-दर याँ-वाँ हुए थे ख़ाक-आलूदा,
बहाल-ए-सग तिरे कूच
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