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पुरुष प्रधान समाज रहा है
अब तक तो यही सुना है
शायद सच से अंजान रहे है
इनका नायाब व्यक्तित्व रहा है।
गर स्त्री होना कठिन रहा है
पुरूष होना आसान कहाँ है
अपने सपनों को कर दरकिनार
सबके सपनों का स्तम्भ रहा है।
पुष्प सा कोमल इनका हृदय
पर पाषाण सा सदा दिखा है
प्रेम के ये तो सागर भी है
पर अभिव्यक्ति का अभाव रहा है।
सपनों को नया आयाम दिया है
आशाओं की मीनार रहा है
सदैव प्रतिस्पर्धी नही रहे है
पूरक में भी इनका नाम रहा है।
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