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"प्यार की नदी बनी है बूंद सी"
कितने गीत दर्द भरे गाऐं हम,
वेदना कभी नही पसीजती,
उन्नति सजी किसी दालान में,
आंसुओं को बेधड़क खरीदती।
झूलती “हंसी” समय का पालना,
झुनझुना बजा रही विवश घड़ी,
बार बार वक्ष से लगा लिया
फिर भी नकचढ़ी कभी न रीझती।
भविष्य के अंधेरे ब्लैक बोर्ड पर,
समस्या काल-दोष की न हल हुई,
अर्थहीन हो गए विषय सभी,
प्रत्येक श्वांस व्यर्थ चिन्ह खींचती।
सभ्यता को पक्षाघात हो गया,
अत्याचार सह रही प्रभावहीन,
तुष्टी पल रही भरम की गोद में,
दुख भरे नयन से आंख मूंदती।
बढ़ रही है उम्र व्यक्ति की मगर,
मनुष्य छोटा हो चला ये दौर है,
कगार के नियम समेट रेत में
प्यार की नदी बनी है बूंद सी।
--प्रदीप सेठ सलिल
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