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"स्वप्न बिके बेभाव"
आसमान से सुबह उतरकर,
आ पहुंची फुटपाथ पर,
मिले दुखों को पाँव,
ग्रहण लगा इस गाँव।
संकरी बस्ती ठौर ठिकाना,
रोटी का सब ताना बाना,
पढ़ना लिखना,
"थम्ब" के जितना-
सूखे में पानी का दिखना,
झण्डा लिखता भाग
सहरा में है नाव,
बिखरे सारे ख़्वाब।
भूख बीजने लगी पसीना,
रहन हो गया मरना जीना,
व्यथा पीटती रही ढिंढ
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