
लो होली आ गई निगोड़ी
चुपके से ही रंग लगाना।
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लो होली आ गई निगोड़ी
अबके कान्हा तुम न आए,
देखो जल्दी ही आ आना
चुपके से ही रंग लगाना,
-यदि रंगना ही है मुझको।
जग वाले कर रहे ढिंढोरा
मुझपर जोबन बलिहारी है,
गांव गांव कैसे जा सकती
यह जोबन मुझपे भारी है,
-क्यों आया यह जोबन मुझको।
सखियाँ मार रहीं पिचकारी
संशय से, दुविधा से हारी,
भला सखि से कैसे कह दूँ
उनको ‘बरसाने’ ले आ री,
-स्वम् आना रंग जाना मुझको।
दुखिया मन कैसे समझाऊँ
कौन ठौर मैं विरहा गाऊँ,
न जानूँ तुम कौन डगरिया
कैसे मैं पाती पहुँचाऊँ,
-देखो तुम ले जाना मुझको।
सखियाँ जग से नयन बचाए
पूछ रहीं “वो” क्यों न आए,
तुम मेरे अंतर की वाणी
कौन ह्रदय उनको समझाए,
-ह्रदय कहाँ अब मेरा मुझको।
कारा लोक लाज की गिरधर
नगर डगर कैसे जा ढूंढू
तुम्हीं श्वास-गति स्वम् आ जाओ
तुम्ही आस मैं तुमको पूजूं,
-रंग न भाते तुम बिन मुझको,
तुम बिन होली कैसे भाये।
लो होली आ गई निगोड़ी
अबके कान्हा तुम न आये।
--प्रदीप सेठ सलिल
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