
“पर तुमने मन-द्वार किसी के बुझते दीप न देखे होंगे”
मधुर मधुर अधरों की हाला
मान लिया छलकाई होगी,
अलकों में उलझी तरुणाई
मन्द मन्द बिखराई होगी,
लेकिन झुकी पलक के आंसू बहते कभी न देखे होंगें।
दर्पण से शरमाई होंगीं
नजरें लाख़ चुराई होंगीं,
भाव भरे बन्धन अर्पण की
पी मदिरा मुस्काई होंगीं,
लेकिन पीड़ा पीने वाले अश्क़ कभी न देखे होंगें।
संध्या नयन सजाती होंगी
गजरे में गुंथ जाती होंगी,
बन मौसम की राजकुमारी
अलसाई इठलाती होंगी,
किन्तु यादों की पुस्तक में सूखे फूल न देखे होंगे।
मेहंदी रची हथेली होगी,
सिन्दूरी यौवन भी होगा,
प्रिया प्रणय-पूजा अपनाने
सुन्दर मिलन शिवालय होगा,
पर मन्दिर मन्दिर दरवाज़े बन्द कभी न देखे होंगे।
मन का दीप जलाया होगा,
अर्चन नित्य चढ़ाया होगा,
किलकारी के बाल स्वरों में
बंधन
का सुख पाया होगा,
पर तुमने मन द्वार किसी के बुझते दीप न देेखे होंगे।
कंगना तनिक बजाया होगा,
श्रद्धा भाव जताया होगा,
निज अपनी परिधि पा जीवन
दिन दिन स्नेह बढ़ाया होगा,
दूर किसी आंगन मुरझाते स्वप्न कभी न देखे होंगे।
--प्रदीप सेठ सलिल
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