
सुनो
तुम कैसी हो
उधर,
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हो सके तो संविधान में दिखना।
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कलियों के अधरों पर
ओस की चंद बूंदें आ बैठीं,
किन्हीं नर्म गालों पर
संभवतः ख़्यालों पर,
न जाने क्यूं
उष्ण आँसू का आभास होने लगा,
स्वप्न संजोने लगा
ओस मिटने पर भी,
गालों पर आंसू देखता रहा
गए पल समेटता रहा,
मैं,
सुनो
तुम कैसी हो
उधर।
इधर
दूर फैले आकाश में
उड़ता पक्षी
पंख फड़फड़ाता
अचानक
कल्पना-सूरज छिप जाता
बादल में विवशता के,
थका पक्षी
लौटता
एक सुनसान घोंसले मे
हार कर हौसले में,
उम्र बढ़ती कामनाओं की
उम्र घटती संभावनाओं की,
भाव लतिका !
तुम कैसी हो
उधर।
तब
उस रोज़ सुबह फिर
थका शरीर
झुककर बैठा ठेले पर
कस्बे गाँव की हवाओं में
असुविधा की फ़िज़ाओं में,
हिम्मत हारता सा
ईंधन आटे दूध कपड़े विचारता सा,
निरंतर
संकरे बाज़ारों में
राजनैतिक नारों में,
अब
तुम कहती हो
मैं
दूर
शहर आ गया हूँ,
यहाँ
आँखें
खोजती हैं,
जो खो गया है
अपनी ही परछाईं में
काली रौशनाई में,
प्रश्न उछलते हैं
इश्तहारों में, अखबारों में
खबरों में नगरों में,
बंधता है
नीति में
अपने दायरे की परिमिति में
कोई,
मैं शहर में अच्छा हूँ-
लोग कहते हैं,
तुम कैसी हो उधर लिखना
हो सके तो संविधान में दिखना।
--प्रदीप सेठ सलिल
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