
Share0 Bookmarks 92 Reads0 Likes
तुम हमारे घर कभी आते नहीं,
यह शिकायत कर सकूं संबध अब ऐसा नहीं।
तुम हमारे घर कभी आते नही
यह शिकायत कर सकूं
संबध अब ऐसा नही।
औपचारिकता निभाना
मुस्कुराना गुनगुनाना,
फिर रसोई से तनिक भर
झाँकना बर्तन बजाना,
वक्त के निष्ठुर चलन में
याद भी है या नही।
संबध अब ऐसा नहीं।
देर तक गीतों को सुनना
उनमें ही फिर स्वप्न बुनना,
प्रातः को सजना संवरना
"बस" में सुविधा ठौर चुनना,
वो गए मौसम की हलचल
प्राणमय है या नही,
संबध अब ऐसा नहीं।
वो सिनेमा घर में जाना
लड़ना और फिर लौट आना,
स्नेह के विद्रोही मोती
नयन नदिया से बहाना,
नागफ़नियों, पुष्प की सी
चाह अब है या नही,
संबध अब ऐसा नहीं।
अब तो प्रातः की किरण भी
हो चली संध्या नयन की,
आंख मूंदूं इससे पहले
ख़ुद से कर लूं बात मन की,
सोंच के भीतर भी क़ायम
रिश्ता अब है या नहीं।
संबध अब ऐसा नहीं।
--प्रदीप सेठ सलिल
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments