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"इस तरफ़ ख़ामोश दिखते, ये भी शामिल जंग में"
अर्श जो दिखता है भाई सिर्फ वो ही तो नही,
जो समुंदर जेब में है सिर्फ़ वो ही तो नही।
इस तरफ ख़ामोश दिखते, ये भी शामिल जंग में,
जो उधर रहबर सा दिखते सिर्फ़ वो ही तो नही।
जो गली के मोड़ से, कटकर भवन तक आ गये,
परचम उठाकर चलने वाले सिर्फ़ वो ही तो नही।
बाग की मुंडेर के उस पार जो दिखते हैं फूल,
बसंत के मौसम की करवट सिर्फ़ वो ही तो नही।
धुंध के इस पार भी अब आतीशे जज़्बात है,
गर्म जज़्बों की हरारत सिर्फ़ वो ही तो नही।
--प्रदीप सेठ सलिल
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