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शाम है गुमनाम सी,बदनाम गलियों में भी फिर,
खनकती हैं चूड़ियां, छनछनाती पायले,
श्याह काली रात में, सैकड़ों सिलवट्टे पड़ी,
कितने निशान बन गए इस आत्मा शरीर पे
"मैं छरहरी सी चहचहा के डोलती थी गांव में,
वो भेड़िया कहीं था खड़ा मुझे बेचने के दांव में,
एक ढोंग दिखा ले चला वो दूर घर की छाव से,
झोला उठा अधियारे में छोड़ा वो घर कुंठाओ में
सपनो में थी बन कर के कुछ गांव अपने आऊंगी,
दुख दूर घर के होंगे सब लाखों कमा के लाऊंगी,
वो गिद्ध मुझे बेच कर एक पल में ओझल हो गया,
उस पल में मानो यकायक नसीब मेरा सो गया
जेठाग्नि कब तक ही भला साथ मेरा दे सकी,
मार खा कर थक गई लहू की जब धारे बही,
अब क्या हुआ था साथ में मन ये बया न कर सके,
हर पल में मैं थी मर रही हैवान लोगो के तले"
अश्लीलता का दाग मुझ पर इस कदर है लग गया,
लोगो की नजरो में बदनामी का तमगा सज गया,
ये पेट की ही आग थी त्यागे गए समाज से,
घर है मेरा, है गांव भी, एक ठोर कहीं अब न मिले
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