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फटे पुराने कपड़े है,बालो में सफेदी छाई है,
जर जर हालत में चलते हुए एक बूढ़ी अम्मा आई है,
सड़क के कोने में ज्यों ही चादर उसने फैलाई है,
जा और कहीं पर जाकर बैठ, आवाज कहीं से आई है
वो डरती सहमी चलते चलते, दूर धूप में जा बैठी,
सुन कर के निष्ठुर बातों को अश्रु की धार बहा बैठी,
वो नीरस आंखें तख्ती रही लोगो की अमिट कतारों को
कहीं हाथ फैला कहीं हाल दिखा,मांगा था कई हजारों को
कुछ देते कुछ आगे बढ़ते कुछ अनदेखा कर जाते थे,
भला पैसे वाले लोगो को गरीब कहां कब भाते थे,
कुछ लोग कहें ये भोले भाले चोर उच्चके होते है,
ना काम काज करना चाहे पर भीख में पक्के होते है
मैं बोली अम्मा ये पैसे जाकर तुम किनको देती हो,
खाने को सबसे ना कहके तुम पैसे ही क्यों लेती हो,
वो बोली बेटा रोजाना साहब को देने होते है,
मैं जिस घर में जा सोती हूं,वहा सब मुझ से ही होते है
वहां बेटा सर पर छत और दो पहर की रोटी मिलती है,
मानस जन के मेलों की कुछ, पैसों पे अमीरी हिलती है,
ये भाग्य की मार ही है बेटा,जो मेरे अपने त्याग गए,
मुझ अबला को इस दुख मे छोड़, मेरे ही बच्चें भाग गए
जो खुद को मुक्कमल कहते है वो मुझसे भी लाचार हुए,
सपनो में चाहे ऊंचे हो संस्कारों में बेकार हुए,
औरों के सर पर छत देखो मुझको न दो पग धरती भी,
मेरी किस्मत का लेखा है ये, ईश्वर के घर में कमी नहीं
सुन कर के कलेजा छिलता है, बूढ़ों को ये सब मिलता है,
ना फूली समाती है माता, पुत्र रत्न जब खिलता है,
वो कहती सुन मेरे बिटिया,नियति का एक दिन वार होगा,
जिस कदर हुई लाचार मैं अब, वो भी इक दिन लाचार होगा
ये श्रृष्टि अपना फेर समय पर बदला करती है बेटा,
तब शायद इस धरती पर फिर बूढ़ों से सही व्यवहार होगा।।
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