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वो रात थी,
और मुझे समझ रही थी "दोपहर"
कि जब कभी रात,
रूठ जाती, टूट जाती;
अपने दिलवर दिन से,
बार-बार झुठी रोनी-रोने, दिल बहलाने;
चली आती रात ,
बेचारा "दोपहर" के पास।
पर रात की चाहत,
दिन की होती है न!
तो बेवफा रात छोड़कर,
"दोपहर" को...!
फिर से लौट जाती दिन के पास।
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