
Share0 Bookmarks 8 Reads0 Likes
वो रात थी,
और मुझे समझ रही थी "दोपहर"
कि जब कभी रात,
रूठ जाती, टूट जाती;
अपने दिलवर दिन से,
बार-बार झुठी रोनी-रोने, दिल बहलाने;
चली आती रात ,
बेचारा "दोपहर" के पास।
पर रात की चाहत,
दिन की होती है न!
तो बेवफा रात छोड़कर,
"दोपहर" को...!
फिर से लौट जाती दिन के पास।
और दोपहर के हाथ लगती,
झुठी तस्सली, और आंसूओं भरे रात.!
सुखे होंठ, सुखे भींगे नयन से,
तड़पता सोचता अकेला "दोपहर"
मैं फंसा कहा बिच में आकर,
दिल में उठता हजारों लहर!
नादान "दोपहर" रहा था ये भुल,
~: रात के बाद दिन आता है,
रात के साथ "दोपहर" कभी नहीं आता!!
✍️ #कुमारलक्ष्मीकांत
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments