वो दिन और मन's image
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वो दिन भी कितने अच्छे थे

जब गाँव में घर सब कच्चे थे

भूख-प्यास सब भूले थे

जब नीम की डाल पे झूले थे

खूब बिजलियाँ गिरती थीं

वो जब पनघट पर पानी भरती थी

फागुन की मस्त हवाओ में

एक नशा तैरता रहता था

रंग से नहलाने भाभी को

देवर घात लगाये बैठा रहता था

सरसो के पीले फुलों में

मधुर रागनी घुलती थी

तीतली के कोमल पंखों से

कहाँ नजर हमारी हटती थी

खेतों की कच्ची पगडंडी पर

संग बाबा के रोटियाँ खाते थे

बड़ी लम्बी दौड़ लगाते थे

जब बाग से आम चुराते थे


आह! अब तो बस उमर सरकती है

न अब बुलबुल पेड़ों पर हसती है

अब कहाँ फाग का जोश रहा

जी लेते कुछ दिन बचपन और

पुर-उम्र यही अफसोस रहा

सुख-दुख की स्मृतियों से सजे हुए

जीवन संग्राम से थके हुए

सांसों के अंतिम पायदान पर

आकर अब हम खड़े हुए

थकी बिखरती सांसे जब

मौत से नज़र मिलाती हैं

मेरे गांव की पहली बारिश की

सोंधी मिट्टी, उस पार मुझे बुलाती है

उस पार सजे सावन के लिए

बूढ़ी आँखों में नवीन मुस्कान लिए

मन खुश होकर दौड़ लगाता है

मन फिर बच्चा बन जाता है...

---पीयूष यादव

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