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चलो माना कि अब ना वो मोहब्बत रही..
वक़्त मरहम बना, ज़िंदगी आगे बढ़ी..
फ़िर सूरत उसकी, ज़हन से क्यों ना गई आजतक?
आज भी उसकी याद में क्यों सुलगता हूँ रात भर?
आंख खुलते ही होती थी जो प्यार भरी बातें..
अब कहां गईं वो हसीन सर्दियों की रातें?
चलो माना उसे देखे, इक ज़माना हुआ..
इश्क जो जिंदा था कभी, अब फसाना हुआ..
फिर मुस्कुराती सुबहें मेरी कहां सो गई?
कोई बताए मेरी नींद, कहां खो गई?
--पीयूष यादव
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