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ना हो ग़रज तो फ़िर सिफ़ारिश कैसी?

हो जाए जो पूरी, तो फिर ख्वाहिश कैसी?


मजा तो तब है जब खिलाफ कोई अपना हो

ना करे कोई दोस्त, तो फिर साजीश कैसी?


है जरूरी कि की जाए मोहब्बत भी

ना आए किसी की याद, तो फिर बारिश कैसी?


किया जाए कुछ ऐसा कि काँधे लपकने को तरसे

ना उमड़ आए जनाजे में हुजूम, तो फिर पैदाइश कैसी?

--पीयूष यादव

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