
Share1 Bookmarks 151 Reads0 Likes
कोई नज़ारा, कहीं दूर, नजर में था।
झूठा, दूर, बस नजर में था।
समंदर सा
हसरतों का
मन कहता है, काश! सब होता
मुझे लगा की नहीं, काश! मैं होता।
क्यों? सफीना है तो!
मगर इम्तेहान तो डूबने का है
और सफ़ीना और तूफान भी भरे से बैठे हैं
आंखों में कुछ राज़, अनमाने से,
स्वप्न और सूर्य का रिश्ता...
बेरुख़ ज़िंदगी है, भीड़ में चेहरे हैं
कुछ जाने से, कुछ अनजाने से,
यूं तो ठिठके से पलकों पे ठहरे हैं
पल, अपने, पर अनजाने से
अब पलटकर सोचता हूं,
समंदर हसरतों का था तो ठीक,
पर, पार करना भी तो हसरत थी।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments